Monday 20 June 2011

रँजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ - अहमद फ़राज़

रँजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ
आ फिर से मुझे छोड के जाने के लिये आ

पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया को निभाने के लिये आ

किस-किस को बतायेंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे खफ़ा है तो ज़माने के लिये आ

कुछ तो मेरे पिँदार-ए-मुहब्बत क भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिये आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिये आ

अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिये आ

(अहमद फ़राज़)

No comments:

Post a Comment